Saturday 13 January, 2024

उत्सवों का आकाश यानी त्यौहारों की सांस्कृतिक-सामाजिक दुनिया / बलराम अग्रवाल

            

सुधा भार्गव जानी-मानी बाल साहित्यकार, कवयित्री और लघुकथा लेखिका हैं। इनके अलावा उन्होंने यात्रा वृत्तांत भी लिखे हैं और डायरी साहित्य भी। ‘उत्सवों का आकाश’ विभिन्न भारतीय त्यौहारों को केन्द्र में रखकर रची गयी उनकी दस बाल कहानियों का संग्रह है।

पहली कहानी का विषय है—नये साल का आगमन। कहानी का शीर्षक है—नये वायदे, नये कायदे। जैसाकि शीर्षक से स्पष्ट है, सुधा जी अपने गद्य में काव्यात्मक प्रवाह का ध्यान रखती हैं। बालकों के लिए लिखी होने की वजह से तो यह और भी आवश्यक है कि भाषा में सरलता और तरलता दोनों हों। कहानी की शुरुआत उन्होंने यों की है—‘नन्हे-मुन्नो, नया साल सूर्य-रथ पर सवार होकर निकलता है।’ अब, सही बात तो यह है कि प्रत्येक दिन सूर्य के रथ पर सवार होकर निकलता है; लेकिन जब यही बात नये साल की नयी सुबह के बारे में कही जाती है, तब उसके ध्वन्यार्थ अलग और आकर्षक होते हैं। ‘नये वायदे, नये कायदे’ सर्रू नाम के एक छोटे बच्चे की कहानी है। उसके पापा नाश्ते के लिए माँ द्वारा बनाये गये गाजर के हलुए, मठरी और बेसन के लड्डू को चोरी-चोरी अकेले ही चट कर जाते हैं। इसके कारण वह खाना भी नहीं खाते और काम पर निकल जाते हैं। यह बात जब सर्रू को पता चलती है तो वह नाराज हो जाता है। उसे खुश करने के लिए माँ नये सिरे से सारी चीजें बनाकर उसे खिलाती है। नये साल के आगमन पर माँ, सर्रू और पापा—तीनों अपनी-अपनी दिनचर्या को निर्धारित करने हेतु स्वयं से नये वायदे करते हैं जिन्हें वे पूरे साल निभायेंगे। सर्रू की मित्र मंडली के अन्य बच्चे भी उत्साह में भरकर नये वादे करते हैं।

दूसरी कहानी है—वेलेंटाइन डे की रानी। पहली ही पंक्ति में कहती हैं—14 फरवरी का प्रेमोत्सव दिवस प्यार देने और प्यार पाने का दिन होता है। इस कहानी की नायिका यानी मुख्य पात्र ‘चिन्नी’ नाम की पालतू बिल्ली है जो दादी की लाड़ली है। घर में दादी के अलावा मम्मी, पापा और गौरव भी हैं। चिन्नी को गौरव के स्कूल से आने के समय का ध्यान रहता है और वह सही 2 बजे दरवाजे पर टकटकी लगाकर बैठ जाती है। गौरव भी चिन्नी का बहुत ख्याल रखता है। मम्मी से कहकर वह आराम से उसके बैठने-खाने के लिए कुर्सी-मेज का इंतजाम कराता है। दादी अपने पुराने तौलिए से काटकर चिन्नी के लिए दो ‘बिब’ बना देती हैं ताकि खाते हुए वह गंदी न हो। पुराने स्वेटरों से वह उसके लिए शॉल भी बनाती हैं। वेलेंटाइन डे को गौरव घर में अपने दोस्तों के चिराग और पराग के साथ केक काटकर मनाता है। इस अवसर पर पराग की ओर से चिन्नी को गुलाब का एक फूल भी भेंट में मिलता है।

तीसरी कहानी का शीर्षक है—ओए बल्ले-बल्ले। यह छोटी-सी एक कविता से शुरू होती है। इसमें गुलाल बिखरते मार्च का जिक्र है तो ‘बड़कू’ नामक उसके बड़े भाई अप्रैल का भी जिक्र है। सुधा जी की बाल कहानियों में बड़ी बात यह है कि बातों ही बातों में वे बाल-संस्कार की बात भी कह देती हैं। इस कहानी में, ‘दादू कहते हैं—हरेक के शरीर में होलिका और प्रह्लाद रहते हैं।’ इसी के साथ बैसाखी का भी उल्लेख एक कविता के माध्यम से हुआ है।

चौथी कहानी ‘नाग देवता’ है। कहती हैं—‘बच्चो, मुझे मालूम है कि तुम्हें रिमझिम बरसते पानी में भींगना बड़ा अच्छा लगता है।’ इस तरह सुधा जी वाचक की तरह केवल कहानी नहीं कहती हैं बल्कि बच्चों से संवाद भी स्थापित करती हैं। बालकों को वह हेल-मेल और प्यार-स्नेह सिखाती हुई समझाती हैं कि—‘तुम्हारी बहन जब झूला झूले तो तुम जरूर उसे झोटा देना। पर धीरे-धीरे। वरना वह डर जाएगी। प्यार से उसे झोटा देना तो वह बहुत खुश होगी।’ जुलाई के साथ-साथ वह हिन्दी महीने सावन का नाम बताना भी लेखकीय कर्तव्य समझती हैं। इस कहानी में रिमझिम बारिश और झूला के साथ ही भारतीय त्यौहार ‘नाग पंचमी’ की भी एक कहानी जोड़ी गयी है। वह यह भी बताना नहीं भूलती हैं कि सारे साँप जहरीले नहीं होते और उनके जहर से दवाई भी बनाई जाती है, इसलिए बिना सोचे-समझे साँपों को मार नहीं देना चाहिए।

पाँचवीं कहानी ‘गुल्लक की करामात’ के केन्द्र में राखी का त्यौहार है। भाई-बहन हैं—टीटू और कोयलिया। इसके माध्यम से वह बताती बताती हैं कि—जिन भाई-बहन के हाथ प्यार से मिले रहते हैं, उनके दो नहीं चार हाथ होते हैं।

छठी कहानी ‘मीठी खीर’ की भूमिका में सुधा जी धीरे-से पहले कृष्ण की कहानी बच्चों को बताती हैं। उसके बाद सुनाती हैं मुख्य कहानी। इस कहानी के मुख्य पात्र बालक सारंगी, उसकी दादी और मम्मी हैं। इनके साथ ही एक गरीब बालक को भी कहानी से जोड़ा है। उस बालक के पास दूध और चावल हैं और वह चाहता है कि उन दूध-चावल से वे उसके लिए खीर बना दें। जाहिर है कि उसका अनुरोध स्वीकारा नहीं जाता है और दुत्कार कर भगा दिया जाता है। ऐसे में, सारंगी अपने हिस्से की खीर दादी से लेकर छिपता हुआ कबीरा नाम के उस बालक के पास जा पहुँचता है। उसे देखकर दादी उसकी माँ से कहती है—‘एक दुखिया को खुशी देकर हमारे घर के कन्हैया ने तो सच्चे अर्थों में जन्माष्टमी मनाई है।’

सातवीं कहानी गणेश चतुर्थी पर्व पर केन्द्रित है। इसका शीर्षक है—‘पूत के पाँव पालने’। इस कहानी को सुधा जी ने सीधे पुराण कथा के आधार पर प्रस्तुत किया है। इस कथा में उन्होंने सरस काव्य पंक्तियों का भी प्रयोग किया है।

आठवीं कहानी दशहरा त्यौहार पर केन्द्रित है। इसके शीर्षक ‘घर का भेदिया’ से ही अनुमान हो जाता है कि इसमें सुधा जी ने किस की ओर निशाना साधा होगा। बाल कहानियों के बारे में सुधा जी का सिद्धान्त है—कहानी की कहानी और जानकारी की जानकारी। सही है, बाल कहानियाँ केवल मनोरंजन और रोमांच के लिए ही प्रस्तुत न की जाएँ बल्कि उनसे बालकों के ज्ञान में भी यथेष्ट वृद्धि होनी चाहिए। न केवल सांस्कृतिक और पौराणिक जानकारी बल्कि वैज्ञानिक जानकारी भी।

नौवीं कहानी के केन्द्र में दीपावली पर्व है। इसका शीर्षक है—‘घर-घर जन्मो राम’। अलटू-पलटू और रामा-लाखा नाम के बच्चे इस कहानी के मुख्य पात्र हैं। इनमें पलटू बड़ा भाई है और अलटू छोटा। ये दोनों इस कदर शरारती हैं कि दिवाली के मौके पर छोड़े जाने वाले पटाखों को जलाकर किसी के भी ऊपर फेंक देते हैं। इसी कारण रामा-लाखा से इनका झगड़ा भी हो जाता है; लेकिन कहानी के अन्त में सब के बीच सुलह हो जाती है। सब प्रेम से दीवाली-पूजन करते हैं।

और अन्त में, दसवीं कहानी दिसम्बर माह की 25 तारीख को मनाये जाने वाले त्यौहार ‘क्रिसमस’ को केन्द्र में रखकर रची गयी है। शीर्षक है—‘लो मैं आ गया’। एक छोटे से घर में मंकी और टंकी नाम के दो लड़के रहते हैं। दिसम्बर की रात दस बजे दरवाजे पर खट-खट की आवाज सुनकर वे चौंक जाते हैं। मंकी झांककर देखता है कि बाहर उसी की उम्र का एक लड़का खड़ा ठंड से काँप रहा है। दोनों भाई मनमौजी नाम के उस लरके को शरण देते हैं। अपनी चारपाई पर उसे सुलाकर खुद जमीन पर सो जाते हैं। सुबह उठकर जो देखते हैं तो मनमौजी गायब! कमरे के बाहर वे सजे-धजे एक पेड़ को खड़ा देखते हैं। पूछने पर वह पेड़ बताता है कि वही मनमौजी है। कहानी इसी तरह बड़े रोचक ढंग से आगे बढ़ती है। पेड़ इस कहानी में सेंटा क्लाज की भूमिका निभाता है।

कुल मिलाकर ‘उत्सवों का आकाश’ रोचक और ज्ञानवर्द्धक बाल कहानियों का पुलिंदा है। इसके लिए लेखिका सुधा भार्गव साधुवाद की अधिकारी हैं। पुस्तक के भीतर विषयानुरूप श्वेत-श्याम चित्र हैं लेकिन वे किसी चित्रकार से न बनवाकर इन्टरनेट से उठाये लगते हैं। मात्र 96 पृष्ठ की पेपरबैक पुस्तक की रुपए 230/- कीमत बहुत अधिक प्रतीत होती है। इस तरह के अनाप-शनाप मूल्य पुस्तकों को बाल-पाठकों से दूर रखने का काम करते हैं।

समीक्षित पुस्तक—उत्सवों का आकाश (बाल कहानी संग्रह); लेखक—सुधा भार्गव; प्रकाशक—श्वेतांशु प्रकाशन, डी-14 नियर रामलीला पार्क, पाण्डव नगर, दिल्ली-110092; प्र॰ संस्करण—मई 2023; कुल पृष्ठ—96; मूल्य—रुपए 230 (पेपरबैक)

 

 

 

समीक्षक सम्पर्क—एफ-1703, आर जी रेजीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र)

मोबाइल—8826499115  

Thursday 11 January, 2024

पठनीय और विचार उत्प्रेरक ‘तूफान गुजरने के बाद’ / बलराम अग्रवाल

           

प्रत्येक लेखक, वह चाहे कवि हो चाहे कथाकार, उसकी स्मृति में अतीत चक्कर काटता है। उस अतीत का कोई हिस्सा कब ज्यों का त्यों अथवा रचना के रूप में उतरने का दबाव रचनाकार पर डालने लगेगा, कहा नहीं जा सकता। अतीत की बहुत-सी अच्छी-बुरी स्मृतियाँ अचेतन मन में आराम से सोई रहने में ही भलाई समझती हैं; लगभग यह गुनगुनाती-सी कि—‘सोई हुई यादो मुझे इतना न सताओ, अब चैन से रहने दो मेरे पास न आओ।’

ॠता शेखर ‘मधु’ द्वारा सम्पादित, उन सहित 29 लेखकों-लेखिकाओं की कलम से नि:सृत, ‘तूफान गुजरने के बाद’ की सभी रचनाओं को न तो कहानी कहा जा सकता न संस्मरण और न ही अतीत रुदन। रुदन तो खैर इनमें से एक भी रचना है ही नहीं। सब की सब कुछ न कुछ लोहा लिए हुए हैं। सब की सब करुणा से सराबोर हैं। इसीलिए वे आपको रुलाती भी हैं और आपकी संवेदना को सहलाती भी हैं। ‘सम्पादक की दृष्टि से’ इन्हें देखते हुए ॠता जी ने पहला ही वाक्य यह लिखा है कि—‘कहानियाँ, जो काल्पनिक नहीं सच हैं।’ 

अंजू शर्मा की संघर्षगाथा पढ़ते हुए लगा कि उन्होंने अपनी नहीं मेरी गाथा लिखी है। किशोर अवस्था से लेकर युवावस्था तक मैंने भी पटरी लगाई, पुलिस कान्स्टेबिल के डंडे खाये, म्युनिस्पैलिटी की रसीद काटने वालों की झिड़कियाँ सुनीं; और भी पता नहीं क्या-क्या। इन स्मृतियों को पढ़ने का एक लाभ यह भी है ये आपके भीतर की आग को कुरेद देती हैं, चिंगारियों को उभरकर ऊपर आने को उकसाती हैं। अर्चना चावजी की रचना बताती है कि सहायता करने वाले के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन कितना बड़ा गुण है। लम्बा संघर्ष करने के बाद बच्चे का कैम्पस सलेक्शन खुशी और सम्मान का जो उपहार संघर्षमयी माँ को देता है, असफल साक्षात्कार वह सब एक ही पल में मटियामेट कर देता है। एकबारगी लगता है कि सब चौपट; लेकिन नहीं। बच्चा नये सिरे से उठ खड़ा होना शुरू करता है और ‘इसरो’ जैसी संस्था में वैज्ञानिक का सम्मानजनक पद पा लेता है। इसे पढ़कर मुझे अनायास ही एक शे’र याद हो आया—

तुंदी-ए-वादे-मुखालिफ से न घबरा ऐ उकाब।

ये तो चलती है तुझे ऊँचा उड़ाने के लिए।  (तुंदी-ए-वादे-मुखालिफ यानी तीव्र तूफान की विपरीतता)  

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने अपनी गाथा ‘गूँज’ के अन्त में लिखा भी है—‘तूफान केवल विध्वंस का प्रतीक नहीं होते, कभी-कभी उनमें निर्माण की गूँज भी होती है।’

एक ओर मधु जैन की कहानी ‘जीवन के रंग’ की वह युवती है जो कमर से नीचे के समूचे अंगों से अपाहिज हो चुके पति की प्राण-पण से देखभाल करती है और दूसरी ओर सुरिन्दर कैले की कहानी ‘मैं नहीं बताऊँगी’  के घायल मेजर शेरसिंह के बचपन की प्रेमिका डॉक्टर मनमीत जो किसी अन्य के साथ सगाई करके अलग जीवन साथी का चुनाव करती है।

‘ये कैसा रिश्ता’ (मनोरमा जैन ‘पाखी’) की शामली को भाग्य की मारी लड़की ही कहा जा सकता है। समूचे संघर्षों के बावजूद, वह सही समय पर साहस नहीं दिखा पाती, वैसा विद्रोह नहीं कर पाती जैसा उसने पढ़ाई जारी करने के लिए विद्यालय का फार्म भरते समय किया था; और सम्भवत: इसी कारण दुर्भाग्य से उबर नहीं पाती और कह सकते हैं कि नष्टप्राय हो जाती है।

निशा महाराणा की ‘दो हंसों का जोड़ा’ एक शिक्षा देती है कि ‘कई बार नादानीवश अपनी बहनों और सहेलियों की सहायता के चक्कर में (महिलाएँ) अपनी जिन्दगी को दाँव पर लगा बैठती हैं।’ दूसरी ओर ‘सूनी तीज’ (रीता मक्कड़) की सरोज है जो ब्रेस्ट कैंसर की अपनी बीमारी का पता चलने पर अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिन्ता से मुक्त होने की खातिर अपने जीवित रहते ही पति का विवाह अपनी छोटी बहन से कराकर मुक्ति की साँस लेती है।

निवेदिता श्रीवास्तव ‘निवी’ की कहानी ‘किन्नर मन’ बताती है कि ‘किन्नर मन होना गलत है, शरीर नहीं।’ पूजा अनिल की ‘मेरी बहादुर बच्ची’ विजातीय युवक से प्रेम विवाह कर लेने वाली एक युवती और उसकी माँ आदि को त्रास दिये जाने की व्यथा है। पूर्णिमा शर्मा की ‘अन्तहीन संघर्ष’ एक महिला के पति की मृत्यु के बाद अनेक संघर्षों से गुजरने की कथा है।

ॠता शेखर ‘मधु’ ने एक ऐसे पिता को रेखांकित किया है जो बदचलन बेटे को घर और सम्पत्ति से निष्कासित कर नाराज बहू को घर वापस ले आता है। ‘आतंक के घेरे से’ (सीमा वर्मा) की दीदी सिर-चढ़े अपने बिगड़ैल पति को उस समय झापड़ मारकर उसकी औकात समझा देती है जब वह अपने ससुर यानी दीदी के पिता पर हाथ उठा देता है।

शोभना चौरे की ‘गुलाब माँ’, एक जुझारू महिला के जीवन की गाथा है तो शील रानी निगम की ‘वात्सल्य’ एक बिगड़ी हुई दत्तक पुत्री के दुर्व्यहार की, ‘अनावरण’ देश पर जान न्यौछावर करने वाले बेटे के पिता के साहस की कहानी है तो शुचि मिश्रा की ‘माँ’, माँ बनने की अनुभूतियों का ऐसा यथार्थ चित्रण है जिसे कोई माँ ही कर सकती है।

सुधा भार्गव की रचना ‘कहर की रात’ पति को तिल-तिल मृत्यु के आगोश में जाते देखने वाली असहाय पत्नी की दारुण कथा है। ‘अनिता जायसवाल की कहानी’ (सुनीता पाठक) दिव्यांग और अनाथ एक ऐसी युवती की सत्यकथा है जो अनाथालय में पली-बढ़ी और पढ़ी है तथा इन दिनों एक आर्मी स्कूल में संगीत शिक्षिका के तौर पर कार्य करती हुई शासकीय सेवा में जाने की तैयारी में रत है। सुरेश सौरभ की ‘आप के अहसासों में रहूँगी’, उपमा शर्मा की ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’, उषा किरण की ‘शरबती बुआ’, डॉ॰ वन्दना गुप्ता की ‘सीमा रेखा’ कहानियाँ भी पठनीय हैं।

उपासना सियाग की ‘जीत’ सास और पति की मृत्यु के बाद अकेली रह गयी ऐसी युवती की कथा है जो अपने साहस के बल पर शासकीय सुरक्षा पाने में कामयाब हो जाती है और निर्बाध अपने शिशु का लालन-पालन कर पाती है।

कुल मिलाकर ‘तूफान गुजरने के बाद’ एक पठनीय और विचार उत्प्रेरक पुस्तक है जिसके संचयन और सम्पादन के लिए ॠता शेखर ‘मधु’ बधाई की पात्र हैं।

सम्पादक : ॠता शेखर 'मधु'
समीक्षित पुस्तक—तूफान गुजर जाने के बाद ; सम्पादक—ॠता शेखर ‘मधु’; प्रकाशक—श्वेतवर्ण प्रकाशन, 212 ए, एक्सप्रेस व्यू अपार्टमेंट, सुपर एमआईजी, सेक्टर 93, नोएडा-201304 (उप्र), कुल पृष्ठ—176; मूल्य—रुपए 249 (पेपरबैक)

समीक्षक—डॉ॰ बलराम अग्रवाल, एफ-1703, आर जी रेजीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र)

Tuesday 5 December, 2023

लिखे जो खत .../ स्नेह गोस्वामी

लघुकथा संकलन 'शब्दों की हांडी में संवेदनाएं' की सम्पादक स्नेह गोस्वामी लिखित पुरोवाक्

 मेरी बात 

स्नेह गोस्वामी

आज के समय में साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा है लघुकथा । आज से लगभग तीस वर्ष पहले तक चुटकुले प्रहसन और फिलर के रूप में जानी जाने वाली लघुकथा अब सभी छोटी बड़ी पत्रिकाओं , समाचारपत्रों , संग्रहों और संकलनों के माध्यम से साहित्य जगत में स्थापित हो चुकी है । लगभग सभी पत्रिकाएं लघुकथा विशेषांक निकाल रही हैं या निकाल चुकी हैं तो इसका श्रेय 1 इसकी संक्षिप्तता, 2 रोचकता, 3 मारक पंचलाइन, 4 गठी हुई भाषा शैली और विषय वैविध्य को दिया जा सकता है । 

लघुकथा की शब्द सीमा, आकार, पंचलाइन और कालदोष निर्धारण को लेकर समय-समय पर विभिन्न विद्वानों में मतभेद और तर्क-वितर्क भी सामने आए पर लघुकथाकार अपने तीर-तरकश संभाले इसका रूप संवारने में दत्त-चित्त होकर डटे रहे । परिणामस्वरूप आज हम लघुकथा का एक सर्वमान्य स्वरूप देख पाते हैं । कथानक और कथ्य (भावपक्ष) के रूप में लघुकथा विधा की स्वीकार्यता हो जाने के बाद लघुकथाकारों का ध्यान इसकी कथन शैलियों की ओर गया और वे लघुकथा का रूप संवारने और उसका श्रृंगार करने को कटिबद्ध हो गये । फिर क्या था, हर रोज नये-नये प्रयोग होने लगे । हर रोज नये-नये शब्द, नये प्रतीक और नई लघुकथा शैलियां अस्तित्व  में आने लगीं। वैसे तो वर्णनात्मक शैली सभी कथाकारों की प्रिय शैली है जिसमें स्थान-स्थान पर रचकर सजाए गये संवाद आभूषण में जङे हीरों की तरह झिलमिलाते हुए पहले से ही दिखाई देते थे। फिर इस शैली को नाम दिया गया मिश्रित शैली। इसके साथ ही मात्र संवाद शैली में भी बहुत-सी लघुकथाएं लिखी गईं।

 अब तो हरि अनंत हरि कथा अनंता के अनुसार, लघुकथा की कई शैलियां दृष्टिगोचर हो रही है यथा–आत्मकथा शैली, एकालाप शैली, डायरी शैली, काव्य शैली, टैलीफोन शैली, तोता मैना शैली, विक्रम बेताल शैली, पत्र शैली, एकांकी शैली, विज्ञापन शैली, समाचारपत्र शैली, पैरोडी शैली, साक्षात्कार शैली, नाट्य शैली, चैट शैली, मानवेतर शैली और प्रतीकात्मक शैली । हालांकि इन सब शैलियों में अभी बहुत कम रचनाएं सामने आई हैं पर लघुकथाकार इन सभी शैलियों में विभिन्न प्रयोग कर रहे हैं और शीघ्र ही हमें अन्य नये प्रयोग भी देखने को मिल सकते हैं ।

यह मेरे हाथ में लिया हुआ संकलन लघुकथा में पत्र शैली की लघुकथाओं पर आधारित है। जब मैंने इस संकलन को संपादित करने का निर्णय लिया तो संशय मन में छाया था । आजकल पत्र लिखने की परंपरा छूट रही है । पत्र लेखन बङे धैर्य का काम था । घर का कोई एकांत कोना तलाशना, फिर कागज कलम दवात का जुगाङ बैठाना और फिर मन की भावनाएं उस कागज पर उंड़ेल देना। कई घंटे की मेहनत से कोई पत्र लिखा जाता, पर पढ़ने पर पता चलता कि ये सब तो लिखना ही नहीं था । तब कागज चिंदी-चिंदी कर फाड़कर फेंक दिया जाता और दोबारा से लिखना शुरु । कई खत तो सात-सात दिन तक लिखे जाते। फिर उनको डाक में डाला जाता। जब पत्र अपने गंतव्य तक पहुँचता तो पत्र पाने वाला उस पत्र को बीसियों बार पढ़ डालता । 

आज मोबाइल के इस मशीनी युग में वह पत्र लेखन के लिए अपेक्षित धैर्य और भावुकता कहाँ। अब तो वाटसएप्प पर, फोन पर दो लफ्जों में ही बात समाप्त हो जाती है । सब शुभकामनाएं और बधाइयां उधार के संदेशों के सहारे चलती हैं । यहाँ से कट, वहाँ पेस्ट या सीधे ही फारवर्ड कर दिया जाता है । ऐसे माहौल में नई पीढ़ी ने तो कभी पत्र लिखा ही नहीं, न पढ़ा । ऐसे में पत्र में लघुकथा शायद आकाश-कुसुम छूने की कल्पना ही न साबित हो । फिर सोचा, कोशिश करने में क्या हर्ज है । कहीं दिमाग में घूम रहा था कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।  

और सही में, मेरा विश्वास जीत गया । एक सप्ताह के भीतर ढेर सारी पत्र शैली की लघुकथाएं प्राप्त हुईं। उनमें से कुछ लघुकथाएं बहुत खूबसूरती से लिखी गई थी । 

प्राप्त हुई वे सभी लघुकथाएं इस संकलन में शामिल नहीं हो पाई । कुछ लघुकथाएं पत्रशैली के फार्मेट में नहीं थीं। कुछ लघुकथाओं में मात्र पत्र था, लघुकथा नदारद थी । कुछ मित्रों ने मुझ पर दया करके दो-तीन लघुकथाएं भेजी थीं, उनमें से एक ही लघुकथा ले पाई हूँ । आप सब को मेल से ही सूचना दे दी गई है । इन सब लघुकथाओं को न ले पाने का मुझे दुःख है पर मेरी और इस संकलन की अपनी सीमाएं हैं, आशा है आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे ।

संकलन में कई लघुकथाओं में हल्की-फुल्की कलम भी चलानी पङी है, कोशिश की है कि कम से कम कलम चले । कुल चौंसठ लघुकथाओं से सजा यह संकलन आप सब के हाथ में है । आप सब की रचनाएं आप सब को 'त्वदीयं वस्तु त्वदीयं समर्पयामि' के भाव से समर्पित कर रही हूँ। स्वीकार करें । 

पसंद तो आप करेंगे ही, ऐसा विश्वास है ।  पढ़कर जरूर मेल के जरिए या जैसा भी आपको सुविधा हो (फेसबुक, वाटसएप, मसैंजर इंस्टाग्राम) जहाँ भी आपका मन चाहे,  बताइएगा कि संकलन कैसा बन पड़ा है । 

स्नेह गोस्वामी 

8054958004

Sunday 17 September, 2023

लघुकथा को लेकर कुछ बातें / डॉ. सुरेश वशिष्ठ

डॉ. सुरेश वशिष्ठ वरिष्ठ साहित्यकार हैं। कहानी, लघु-कहानी, लघुकथा, नाटक, नुक्कड़ नाटक, एकांकी, आलोचना आदि साहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है। गत लगभग एक सप्ताह से मधुमेह के कारण अस्पताल में हैं। आज उनसे बहुत-सी बातें हुईं। स्वस्थ हो जाने के बाद मैंने उन बातों को लिख भेजने का अनुरोध किया तो उन्होंने आज इस टिप्पणी के साथ यह लेख भेज दिया कि यह अभी फाइनल नहीं है। बहरहाल, उनकी अनुमति के बिना मैं इसी रूप में ‘जनगाथा’  और लघुकथा-साहित्य के पाठकों के समक्ष इसे रख रहा हूँ।

डॉ. सुरेश वशिष्ठ
लघुकथा में कथा के अंश का रहना अनिवार्य है। सहज और स्वाभाविक रूप से कथा आगे बढ़े और रोचक परिवेश बनाती हुई कोई सीख देती जाए, यह जरुरी है। सामान्य रूप से लघुकथा में विचार प्रभावी रहता है। विचार और कथा दोनों का आभास पाठक को होता रहे, तभी उसकी सार्थकता है। गोल-गोल घुमाकर वार्तालाप को रख देना ही लघुकथा नहीं। लेखक व्यंग्य छोड़कर रह जाता है, वह भी ठीक नहीं। महसूस हो कि वह छोटी, रोचक और व्यंग्य रचना के साथ बुद्धि पर कटाक्ष करती है। उसमें निहित विचार चोट दे रहा है। लघुकथा का यह ढंग पाठक को परिवेश बदलने के लिए बाध्य करता है। उसे जागने, उठने के लिए विवश करता है। कथ्य में जो कहा गया, वैसा तो हुआ है और उसे वैसा नहीं होना चाहिए था। अब इसे बदलने के लिए आवाज दी जानी चाहिए। यह यथार्थ का सत्य-रूप है, इसे पढ़ने पर ह्रदय मचल उठा है। यही लघुकथा का सार्थक पहलू है।

        आज लघुकथा अपने जिस रूप में हमारे सामने है,उसने  यहाँ तक आने में अनेक करवटें बदली हैं। उसके कथ्य-रूप की चर्चाएँ अस्सी के दशक में शुरू हुई। उन दिनों, आम इंसान का जीना दूभर हो रहा था। भारत ही नहीं, पूरे विश्व में अराजकता का आलम था। आदमी का अस्तित्व खंडित हो रहा था। लोगों में अपने हक के लिए बेसब्री थी। साहित्य पर विसंगत दृष्टि प्रभावी थी। नाटक, कहानी और अन्य विधाओं में परिवर्तन लाजमी हो चला था। नाटक या कहानी के माध्यम से आदमी का जुझारू स्वरूप सामने आने लगा था। डॉयलॉग मुखर हो रहे थे। उसी परिवेश से लघुकथा बाहर आई।

         इमरजेंसी से पूर्व युद्ध के गौरिल्ला सैनिकों की तरह साहित्य में भी ऐसे पात्र खुलकर बोलने लगे थे। कहानी अपने छोटे रूप में यथार्थ को उकेरने लगी थी। पत्र-पत्रिकाओं में आपसी संबंध, मुखर विरोध या छुपा हुआ परिवेश सधे हुए डॉयलॉग के साथ उलीचा जाने लगा था। मंटो, खलिल जिब्रान और ब्रेख्त की धारदार लघु कहानियाँ व्यक्ति मन को प्रभावित करने लगी थी। अंतर्मन और बुद्धि ने करवट बदली और लेखन की दिशा परिवर्तित हुई। नुक्कड़ नाटक और लघुकथा उसी दौरान की देन है।

          उन दिनों, फैक्ट्री के गेटों पर, मलिन बस्तियों में, नगर-गाँव के चौराहों पर धड़ल्ले से नुक्कड़ नाटक खेले जा रहे थे। नाटक में दृश्य को थामकर जो मोड़ लिया जाता और विसंगति को जिस कदर प्रस्तुत किया जाता, निस्संदेह वह चौकाने वाला था। झकझोर देने वाला था। उसी तरह पत्र-पत्रिकाओं में लघु कहानी का जो ढंग विकसित हो रहा था, आगे चलकर उसी ढंग ने लघुकथा को जन्म दिया। अर्थात नुक्कड़ नाटक हो या लघुकथा, दोनों का जन्म एक ही गर्भ से हुआ और वह गर्भ था-- चेतना की नई दृष्टि। यथार्थ परिवेश और रचनात्मक संघ-जाग्रति।

           यह शायद 1984 के आसपास का समय रहा होगा। लेखन में जो रचनात्मक बदलाव हो रहा था, पत्र-पत्रिकाओं ने इसे सहेजकर प्रकाशित करना शुरू किया। उन्हीं दिनों, जानी-मानी पत्रिका 'सारिका' ने भी लघुकथा पर एक विशेषांक निकाला। सारिका के उस अंक में मेरी भी एक लघुकथा 'अनोखा मिलन' जिसे मैंने बाद के दिनों में 'काली छाया' के नाम से पुस्तक में समाहित किया, छपी थी। उसी दौर में असगर वजाहत के 'संवाद' और 'रूहों' के माध्यम से उघाड़े गए सच से पाठक का सामना हुआ। वह लेखन की नई तकनीक और तीखे सवालों से रू-ब-रू हुआ। लिखने का चलन बढा और इजाद के इस रूप में इजाफा होने लगा। लघुकथा को लेकर चर्चाएं तीव्र होने लगीं। असंख्य रचनाकार एक मंच पर एकत्रित होने लगे और लघुकथा के नये आयाम खुलते चले गए।लघुकथा को लेकर भ्रम की स्थिति भी है। लोग उसे परिभाषित भी करने लगे हैं। जिक्र हुआ तो समझ भी विकसित हुई और लघुकथा के प्रति सुदृढ़ विश्वास भी बना। इस विधा के प्रति मेरा दृष्टिकोण सीखने की तरफ ज्यादा गया। इसके तीक्ष्ण प्रहार ने मुझे सहज आकर्षित किया। उसकी गुदगुदी और चुभन सच को बेपर्दा करती है। मैंने असंख्य लघुकथाओं को पढ़ा है। असगर वजाहत के संपर्क में रहने से इसके पक्ष को जाना है। टीम वर्क में डॉयलॉग लिखते समय इसके प्रहार पर नजरें गई हैं। उसके बाद ही लघुकथा लिखने का सिलसिला शुरू हुआ है।

       रंगमंच से हमेशा मेरा जुड़ाव रहा है। ब्रटोल्ट ब्रेख्त पर काम करने के दौरान, ब्रेख्त के रंगकर्म और उनकी लघुकथाओं के तीखे सवालों और कुलबुलाते यथार्थ को जाना है। लेखक उतनी जल्दी नहीं लिख सकता, जितनी जल्दी सरकारें बदल जाती हैं... और सरकारें बदलने का यह सिलसिला बहुत पुराना है। इसी ढंग पर चोट करने का काम लघुकथा करती आई है। मंटो ने जिस मंजर पर कटाक्ष किया, वह मंजर किसने इजाद किया, सहज समझा जा सकता है। अपने समय के सच को कहने और उसके पक्ष में खड़ा रहने का काम लघुकथा का है। यही कारण है कि यह विधा दिनों-दिन अपने क्लेवर को सुदृड़ करती जा रही है।

मैंने अब तक एक सौ पचास से ऊपर लघुकथाएँ लिखी हैं। संवाद शैली में भी और पत्रशैली में भी। रूहों के माध्यम से यथार्थ को अनावृत्त भी किया है।

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Tuesday 4 July, 2023

सत्य शुचि की मोहन राजेश से एक विशेष भेंट-वार्ता

 लघुकथाएक स्वतंत्र, सशक्त विधा : प्रश्नों के घेरे में

'सन्दर्भ साहित्यिकी' के माध्यम से 'डिक्टेटर' ने लघुकथा को पर्याप्त अधिमान्यता दी है। साथ ही 'सन्दर्भ साहित्यिकी' के सम्पादक श्री मोहन राजेश का लघुकथा क्षेत्र में प्रारम्भ से ही सक्रिय योगदान एवं महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इसी कारण 'डिक्टेटर' के इस 'लघुकथा बहुल अंक' के लिए कुछ सामान्य पाठकीय जिज्ञासाएं लिये मैं उनके पास पहुंचा। औपचारिक बातचीत के पश्चात् मेरा प्रथम प्रश्न था : 

                   मोहन राजेश कुमावत

● सत्य शुचि : प्रो. कृष्ण कमलेश ने अपने शोध-संबंधी प्रश्न-पत्रक में लघुकथा-संबंधी विश्लेषणात्मक तथ्यों के अभाव का जिक्र करते हुए प्रश्न उठाया है कि आखिर लघुकथा है क्या? उसका औचित्य, इसकी कसौटी आदि सभी कुछ अस्पष्ट-सी है। आप इस सन्दर्भ में कुछ कहना चाहेंगे

मोहन राजेश : प्रश्न निःसन्देह महत्व का है, किन्तु संभवतः कमलेश ने कहीं कुछ अति वेग से काम लिया है। जहाँ तक मेरा ख्याल है, बीच-बीच में कई लेेखकों ने लघुकथा को परिभाषित करने का प्रयास किया है। 'साहित्य-निर्झर' के लघुकथांक मे कुछ परिभाषाएं संकलित भी की गई थी। जहां तक किसी एक सर्वसम्मत परिभाषा का प्रश्न है, ऐसा अब तक न किसी विषय या विधा के संबंध में हो पाया है, और न ही लघुकथा के संंबंध में हो सकता है। इसी प्रकार लघुकथा के आकार-प्रकार, महत्व आदि पर भी टुकड़ों- टुकड़ों में विचार दिये जाते रहे हैं। मैं लघुकथा को एक पूर्ण विधा के रूप में देखता हूँ। जिसका मन्तव्य किन्हीं विशिष्ट क्षणों की सूक्ष्मतिसूक्ष्म अभिव्यक्ति, किन्हीं अनुभूतियों को प्रतिक्रिया या जीवन की प।यांत्रिक जटिलताओं का विश्लेषण या अन्य कुछ भी जो सार्थक हो, या सार्थकता को अभिप्रेरित हो, हो सकता है। 

सत्य शुचि : क्या लघुकथा का संबंध उसके लघु आकार से नहीं है

● मोहन राजेश : बिल्कुल है। वस्तुतः विधा का नामकरण ही इसके आकार-प्रकार की सांकेतिक अभिव्यक्ति देता है। जिस प्रकार कहानी को उपन्यास के किन्तु इसे प्रकार समझा जाना चाहिए कि लघुकथा तो लघु आकार में ही होगी किन्तु जो कुछ भी लघु आकार में है, वह लघुकथा ही है, ऐसा नहीं है। वस्तुत: यह भ्रम एक व्यापक स्तर पर फैलाया जा रहा है और कहानियों के कथानक, छोटे-छोटे संस्मरण आदि लघुकथा के रूप में किए जाते रहे हैं। 

● सत्य शुचि : आलोचकों का कहना है कि लघुकथा लिखना उन्हें 'शीघ्र स्खलन' जैसा प्रतीत होता है? आप क्या कहेंगे

● मोहन राजेश : किसे क्या करना कैसा लगता है यह वैयक्तिक अनुभूतिगत प्रसंग है। निश्चय ही वे आलोचकगण शीघ्रपतन के रोगी रहे होंगे । मैं लघुकथा को एक पूर्ण विधा के रूप में मानता हूँ। इसीलिये ऐसे किसी कथन से मेरे सहमत होने का प्रश्न ही नहीं रहता है। 

सत्य शुचि : राजस्थान विश्व विद्यालय की शोधा छात्रा कु. शकुन्तला किरण ने लघुकथा विषयक अपने शोध में लघुकथा और कहानी के शिल्प प्रारूप संबंधी अंतरों को जानना चाहा है। लघुकथा कहानी से कहाँ अलग होती है? आपकी क्या राय है

● मोहन राजेश : यहाँ मेरा एक प्रश्न है, लघुकथा कहानी से कहाँ मिलती है। आप बतायेंगे

सत्य शुचि : मेरा ख्याल है, दोनों लगभग समान धरातल पर गढ़ी जाती हैं। अतएव पर्याप्त समानता एवं सम्बद्धता रखती हैं। 

● मोहन राजेश : एक ही घरातल पर अवस्थित होने की बात एकदम सही है। किन्तु समान धरातल पर सह सम्बद्ध होना नितान्त आवश्यक नहीं। इस दृष्टि से लघुकथा कहानी की सहयात्री अवश्य हो सकती है। जैसे कि कहानी उपन्यास की है। लघुकथा अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। उसे कहानी का उच्छिष्ट या संक्षिप्तिकरण समझना गलत होगा। जिस तरह कहानी को उपन्यास का संक्षिप्त नहीं समझा जा सकता । एक स्वतंत्र विधा के रूप में लघुकथा कहानी से अलग प्लेेटफार्म रखती है। लघुकथा और कहानी के अन्तर संबंधित मेरा एक लघु लेख डिक्टेटर के किसी अंक में आ भी चुका है। मोटे तौर पर इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है कि कुछ अनुभूतियाँ या कुछ कथ्य ऐसे ही होते हैं जिन्हें लघु प्रारूप में ही कहा जा सकता है। इसके विपरीत कुछ कथ्य लंबे-चौड़े की आवश्कताएँ रखते हैं। वस्तुत: लघुकथा और कहानी इसी संप्रेषणीयता पर एक दूसरे से भिन्न होती हैं। उनमें रुपान्तर की प्रक्रिया संभव नहीं है। यदि लघुकथा के कथ्य को कहानी के रूप में लिखने का प्रयास किया गया तो अनावश्यक विवरणों एवं वर्णनों की बोझिलता में वह अपना प्रभाव खो देगी। इसी प्रकार जिन कथ्यों के सम्प्रेषण के लिए पर्याप्त विस्तार की आवश्यकता होती है, वे भी लघुकथा के रूप में निष्प्रभावी रहे जाते हैं। मैं समझता हूँ कि लघुकथा और कहानी का अन्तर इनके उद्गम (कथ्य) से ही स्पष्ट हो जाता है। 

● सत्य शुचि : लघुकथा, बोधकथा, नीतिकथा, व्यंग्यकथा यादि कथा के कई रूप प्रचलित हैं। क्या ये सब लघुकथा के अन्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं अथवा भिन्न विधा के रूप में

● मोहन राजेश : मेरा ख्याल है कि लघुकथा के ही अंतर्गत रखकर मन्तव्य की दृष्टि से उसके विभिन्न उपभेदों के रूप में समझा जाना चाहिये। जिस प्रकार कहानी का वर्गीकरण उसके उद्देश्य, प्रस्तुतीकरण, शिल्प आदि के सन्दर्भ में किया जाता है वैसा ही वर्गीकरण लघुकथा में बोधकथा, नीतिकथा, व्यंग्यकथा, संघर्षकथा, हास्यकथा भयकथा यदि संभव रूपों में किया जा सकता है। 

● सत्य शुचि : लघुु आकारीय होने के कारण लघुकथा से तीव्र व्यंग्यात्मकता की अपेक्षा रखी जाती है। क्या आप भी ऐसा ही सोचते है

● मोहन राजेश : जी नहीं। लघुकथा केवल व्यंग्य ही हो, यह आवश्यक नहीं। यद्यपि यह सत्य है कि व्यंग्य निहित होने से उनमें कुछ तीखापन अवश्य आ जाता है। मर्मांतकता भी बढ़ जाती है; किन्तु यह कथ्य की आवश्यकता पर ही निर्भर करता है। कई एक सामाजिक तथ्यों के कथ्यों पर गंभीरतापूर्वक लघुकथाएँ भी लिखी गई हैं। 

● सत्य शुचि : कुछ लोग लघुकथा के नाम पर चुटकुलेबाजी भी कर रहे हैं। आप इस संबंध में क्या मत देंगे?

● मोहन राजेश : बेशक! कुछ लोगों ने बल्कि ज्यादातर लोगों ने लघुकथा को उतनी गंभीरता से लिया ही नहीं है जितना कि इसे एक विधा के रूप लिया जाना चाहिये था। कुछ लोगों ने तो केवल एक फुल स्केप पेज में लिखी जा सकने वाली अपनी ऊटपटाँँग कल्पनाओं तक ही रख छोड़ा है। कुुछ इसे समय काटने हेतु फिलर के रूप में प्रयुक्त करते हैं। कुछ सहधर्मी लघुुकथाकार भी केवल इसीलिये लघुकथाएँ लिखते रहे हैं कि यह झटपट लिखी जा सकती और कापी-वापी करने में भी कोई झंंझट नहीं आती। कुछेक अपनी छपास की तुष्टि के लिए ही लघुकथा को अपनाये बैठे हैं; किन्तु ऐसे यह स्थिति प्रायः सभी विधाओं के साथ रही है। गुणात्मकता कम होती है, संख्यात्मक अधिक। खेद की बात है कि लघुकथा को चुटकलेबाजी का रूप देने में एक शीर्षस्थ पत्रिका भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। 

● सत्य शुचि : हिन्दी लघु के प्रकाशन क्षेत्र के सन्दर्भ में आप क्या कहेंगे? 

● मोहन राजेश : प्रकाशन की दृष्टि से लघुकथा को व्यापक क्षेत्र मिला है। वस्तुत: लघुकथा और लघु-पत्रिकाओं ने परस्पर सहयोगी भूमिकाएं निभायी हैं। जहाँ तक बड़ी पत्रिकाओं का सवाल है, स्थिति किसी से छिप नहीं है। 

● सत्य शुचि : लघुकथा का आरम्भ, प्रमुख लघुुकथाकार, उनकी मुख्य लघुुकथा आदि के बारे में अपना मत प्रस्तुत कीजिये । 

● मोहन राजेश : जहाँ तक लघुुकथा के उद्गम, प्रवर्तक आदि के प्रश्न हैं, मेरी इसमें कोई रुचि नहीं है। साथ ही यह सम्प्रति शोध विषय थी। प्रमुख लघुकथाकारों को मैं दो श्रेणियों में रख सकता हूँ--एक वे, जिन्होंने लघुकथा लेखन के साथ-साथ एक विधा के रूप में उसे स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं। ऐसे कुछ नाम हैंप्रो. कृष्ण कमलेश, रमेश बतरा, जगदीशचन्द्र कश्यप, सिमर सदोष और शायद मोहन राजेश भी । दूसरी श्रेणी में वे लघुकथाकार है जिन्होंने अपनी सशक्त लघुकथाओं के माध्यम से लघुकथा को समृद्ध किया है। बृजेन्द्र वैद्य, कमलेश भारतीय, मधुप मगधशाही, भगीरथ, महावीर प्रसाद जैन, जयसिंह आर्य, अर्जुन कृपलानी, अनिल चोरसिया, हंसराज अरोड़ा, कैलाश जायसवाल, किशोर काबरा, धनराज चौधरी, नीलम कुलश्रेष्ठ शकुन्तला किरण, रेणु माथुर, सुशील राजेश, एल. आर. कुमावत, वि. शरण श्रीवास्तव, सत्य शुुचि आदि कुछ ऐसे ही लघुकथाकार हैं । कुछेक हस्ताक्षर जो आशाएं जगाते हैंडॉ. अनूपकुमार दवे, विभा रश्मि, जवाहर आजाद, विजय विधावन, कृष्ण गंभीर, सुषमा सिंह, प्रचण्ड, मुकुट सक्सेना आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। उपर्युक्त वर्गीकरण आदि मेरी व्यक्तिगत धारणा है। जहां तक इन लघुकथाकारों को रचनाओं का प्रश्न है, मैं अलग-अलग सभी के नाम गिनवा सकने में असमर्थ हूँ। 

सत्य शुचि : लघुुकथा के भविष्य के बारे में आप क्या सोचते हैं ! 

● मोहन राजेश : इतने व्यापक स्तर पर चर्चित प्रकाशित होने के पश्चात भी क्या लघुकथा के भविष्य के बारे में संदेह रह जाता है? मैं एक स्वतंत्र विधा के रूप में लघुकथा का भविष्य काफी उज्जवल देखता हूं। इसकी सघर्षशीलता उपलब्धियों के कई धरातल भी दिये हैं । अन्तर्यात्रा, तारिका, साहित्य निर्भर, अतिरिक्त, शब्द, मिनीयुग, दीपशिखा, हिन्दी मिलाप, दैनिक नवभारत, बम्बार्ड, डिक्टेटर, लघुकथा आदि पत्र-पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांकों एवं लघुकथाओं को प्राथमिकता देने से लघुकथाकारों का हौसला काफी बढ़ा है। भगीरथ ने रावतभाटा से 'गुफाओं से मैदानों की ओर' प्रथम लघुकथा संकलन देकर विधा को स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तो कृष्ण कमलेश ने अपने लघुकथा संकलन 'मोहभंग' के माध्यम से उसमें अपना योग दिया है। भोपाल विश्वविद्यालय से कृष्ण कमलेश और राजस्थान विश्वविद्यालय से कु. शकुन्तला किरण के लघुकथा संबंधी शोध भी विधा के उज्ज्वल भविष्य के ही संकेतक हैं। भगीरथ और अमलतास (बलराम) आदि ने लघुकथा संबंधी समीक्षात्मक लेख भी लिखे हैं, किन्तु भगीरथ-सी निरपेक्षता सभी में दृष्टिगत नहीं होती। जो भी है, लघुकथा एक युवा विधा है। क्योंकि इसके सृजेताओं में कुछेक अपवादों को छोड़कर बहुतांश युवा रचनाकारों का ही है । 

 
(साभार : 'डिक्टेटर', स्वतंत्रता दिवस विशेषांक; 12 अगस्त, 1976)
 □ डिक्टेटर साप्ताहिक, चम्पानगर, ब्यावर (राजस्थान)